अरुन्धती ने सबको सचेत करने की कोशिश की लेकिन इस अवस्था में किसी को अपने ऊपर काबू नहीं रह गया था, शिव अपनी ही धुन में थे, न उन्होंने उनकी ओर ध्यान दिया न उनके किसी प्रश्न का उत्तर दिया। ऋषि पत्नियों द्वारा शिव को आकर्षित करने के सभी प्रयास विफल हो गये और वे सभी कामातुर होकर मुर्छित हो गई। जब वे रात भर अपनी कुटियों में नहीं लौटीं तो प्रात: काल ऋषि उन्हें ढूंढने निकले। जब उन्होंने यह देखा कि शिव तो समाधि में लीं हैं और उनकी पत्नियाँ अस्त-व्यस्त अवस्था में उनके चारों ओर मूर्छित पड़ीं हैं, उन्होंने बिना कुछ सोच विचार किये क्रोधावेश में बिना कुछ पूछे यह निष्कर्ष निकाल लिया कि "तुमने हमारी पत्नियों के साथ व्यभिचार किया है अत: तुम्हारा लिंग तुरन्त तुम्हारे शरीर से अलग होकर पृथ्वी पर गिर जाये"। शिव ने अपने नेत्र खोले और उत्तर दिया "तुम लोगों ने मेरा दोष न होते होते हुए भी मुझे शाप दिया, पर तुम लोगों ने इस संदेहजनक परिस्थिति में मुझे देखकर अज्ञान में ऐसा किया हैं इसलिए मैं इस शाप का विरोध नहीं करूँगा और मेरा लिंग स्वत: गिर कर इस स्थान पर स्थापित हो जायेगा। तुम सातो ऋषि भी आकाश में तारों के साथ अन्नत काल तक लटकते रहोगे"। ऋषियों के शाप से लिंग पृथ्वी पर गिर पड़ा और जलता हुआ वहाँ घूमने लगा उसकी चपेट में आकर सारा स्थान, जंगल आदि जलने लगे। ऋषियों को जब कोई उपाय न सूझा तो घबराकर ब्रह्मलोक की और भागे और ब्रह्मा जी से प्रार्थना की कि "अपनी सृष्टि को बचाने का प्रयास कीजिए शिवजी के लिंग से तीनों लोक भस्म होने जा रहे हैं। "ब्रह्मा जी बोले - " तुम लोग यह भूल गये कि शिव रुद्र भी हैं। वास्तव में शिव दोषी नहीं हैं। तुम्हें तो उस निर्दोष अतिथि का स्वागत करना चाहिए था। तुम सब गृहस्थ हो, गृहस्थ का धर्म अतिथि सेवा होता है न कि बिना जाने-बूझे शाप देना। इससे बचने का एक ही उपाय है कि ल्तुम रुद्र की उपासना करो वे ही कोई रास्ता निकालेंगे। "ऋषियों ने रुद्र की उपासना की। आशुतोष शिव शीघ्र प्रसन्न होने वाले देवता होने के कारण शीघ्र पसीज गए। उन्होंने प्रकट होकर देवताओं से कहा कि "केवल पार्वती ही इस तेज को संभालने में समर्थ हैं"। ऋषियों ने पार्वती की उपासना की। उन्होंने प्रकट होकर ऋषियों की प्रार्थना सुनी तथा संसार के प्राणियों की रक्षा के लिए उनकी प्रार्थना स्वीकार की, फिर योनि के रूप में शिवलिंग को धारण किया। देवताओं और गन्धर्वो की पूजा अर्चना के बाद शान्त हो गया। इसी के बाद शिवलिंग की पूजा आरम्भ हुई। यही लिंग स्वयंभू लिंग के रूप में जाना जाता है। इसके अतिरिक्त प्राचीन काल में देव, दानव, यक्ष, नाग, किन्नर आदि अनेक जातियाँ निवास करती थीं। इनमें से नाग जाति के अधिपति शिवजी माने जाते हैं। उनका प्रदेश भी हिमालय का यह भाग ही माना जाता है। देवों का अधिपति इन्द्र को तथा यक्षों का अधिपति कुबेर को माना जाता है। देवों का अधिपति इन्द्र को तथा यक्षों का अधिपति कुबेर को माना जाता है। स्वयंभू लिंग होने के कारण इस लिंग की ठीक-ठीक प्राचीनता नहीं सिद्ध की जा सकती। |
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